Essay in Hindi PDF Download – हिंदी निबंध लेखन, कक्षा 1 से कक्षा 12 तक के लिए हिंदी में निबंध

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इस लेख में राष्ट्रीय एकता, देशप्रेम और भारतीय संस्कृति पर हिंदी निबंध लिखे गए हैं जो निम्न प्रकार हैं :-

राष्ट्रीय एकता पर हिंदी निबंध

प्रस्तावना

भारत एक विशाल देश है – उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक , पूर्व में नागालैंड से लेकर पश्चिम में गुजरात तक भारत माता का विशाल भव्य रूप सर्वदर्शनीय एवं पूजनीय है। भारत में अनेक प्रदेश हैं। यहाँ के निवासियों में अत्यधिक विविधता तथा अनेकरूपता है, तथापि इस विभिन्नता एवं अनेकरूपता में भी एक ऐसी एकता विद्यमान है जो हम सबको एक-दूसरे से मिलाये हुए है । एक ऐसा महत्वपूर्ण सूत्र है जो विविध मणियों को जोड़कर एक सुंदर बहुरंगी माला का रूप दे देता है यह सूत्र ही हमारी भावात्मक एकता है। यह भावात्मक एकता ही सम्पूर्ण राष्ट्र में एक राष्ट्रीयता को जन्म देती है ।

राष्ट्रीयता

राष्ट्रीयता की भावना ही वह ज्वलन्त भावना है जो किसी देश के नागरिकों में देश-प्रेम और आत्म-गौरव की भावना पैदा करती है। इस पुनीत भावना के जाग्रत होने पर ही किसी राष्ट्र के नागरिक के लिए हँसते-हँसते अपने प्राणों का बलिदान कर देते हैं। यह वह भावना है जो सम्पूर्ण देश के नागरिको में एकता कि इस भावना को जन्म देती है कि राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक मेरा भाई है उसकी सहायता व सहयोग करना मेरा परम कर्तव्य है । राष्ट्रीयता की भावना ही नागरिकों के हृदय में मातृभूमि का श्रद्धामय मातृरूप अंकित करती है।

राष्ट्र की धरती हमारी माता है। उसका अन्न-जल खाकर हम पलते हैं, उसकी गोद कर हम पुष्ट होते है और उसकी वायु में श्वांस लेकर ही हम प्राणवान होते हैं। उस मातृभूमि का कण- इसे प्राणों से प्यारा है। उसके कण-कण की रक्षा करना हमारा परम धर्म है। मातृभूमि के इस समग्र और अखंड रूप की रक्षा करने की भावना का मूल स्रोत राष्ट्रीयता की भावना ही है। राष्ट्रीयता की इस पवित्र भावना के अभाव में किसी देश का उत्थान और समृद्धि तो दूर की बात है, उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है ।

भावात्मक एकता

हमारी राष्ट्रीयता का मूल आधार हमारी भावात्मक एकता है। हमारे इस विशाल देश में भाषा, वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान सम्बन्धी आदि अनेक विषमताएँ हैं। धर्मों और जातियों में अनेकता है तथापि हम सब एक हैं। इस एकता और अखण्डता का आधार भावात्मक और सांस्कृतिक एकता है। हमारी संस्कृति अविभाज्य है। विभिन्न धर्मों के होते हुए भी हमारी भावना एक है। बाहरी जीवन, वेशभूषा आदि में भेद होते हुए भी हमारा जीवन-दर्शन एक है।

हम मानव मात्र में एकता के दर्शन करते हैं। यही हमारा जीवन-दर्शन है। भारतीय संस्कृति में पलने वाला हर नागरिक प्रतिदिन पूजा के समय कामना करता है । प्राणी मात्र को सुखी बनाना ही भारतीयों का मुल्य उद्देश्य है। हमारा यह उद्देश्य ही राष्ट्रीयता से ऊपर उठाकर हमें अन्तर्राष्ट्रीयता की ओर ले जाता है।

राष्ट्रीयता को आवश्यकता

राष्ट्र की एकता, अमण्डता एवं सार्वभौम सत्ता बनाये रखने के लिए राष्ट्रीयता की भावना का उदय होना परमावश्यक है। यही वह भावना है जिसके कारण राष्ट्र के नागरिक अपने राष्ट्र के सम्मान, गौरव और हितों का चिन्तन करते हैं। हमारे देश में विगत वर्षों से राष्ट्रीयता की भावना कुछ दबने लगी है। अनेक दल उठ खड़े हुए है और लोगों का नैतिक पतन हुआ है। सब स्वार्थ के वशीभूत होकर राष्ट्र के हित को भूलकर अपनी-अपनी सोचने लगे हैं।

प्रादेशिकता , जातीयता तथा भाई-भतीजावाद इतना बढ़ गया है कि देश का भविष्य अन्धकारमय वियाई पडने लगा है। संकट के इस समय में हमें विवेक से काम लेना चाहिए। हमारे नेताओं और सरकार को चाहिए कि वे स्वार्थ का त्याग करें, कुर्मी का मोह छोड़ें, अपने राजनैतिक लाभ के लिए देश को संकट में न हालें। सरकार और मन्त्रियों को चाहिए कि वे स्वार्थ से ऊपर उठ कर राष्ट्र के कल्याण की बात सोचे। यदि ऐसा न हुआ तो देश कहाँ जायेगा, कहना कठिन है।

राष्ट्रीयता के अभाव के कारण

किसी राष्ट्र में राष्ट्रीयता का अभाव तभी होता है जब वहाँ के निवासियों के हृदय से भावात्मक एकता नष्ट हो जाती है। संकीर्ण भावनाएँ पारस्परिक भेद की दीवारे खड़ी कर देती है और विभिन्न क्गों के लोग अपने स्वाथों में फंस जाते हैं। सभी लोग अपना भला चाहने लगते है और दूसरों का अहित करने लगते है। हमारे देश में यह बर्गवाद कई रूपों में पनप रहा है।

प्रान्तीयता :- कभी-कभी प्रान्तीयता की संकीर्ण भावना इतनी प्रबल हो जाती है कि वह राष्ट्रीयता को दबा देती है। लोग यह भूल जाते हैं कि राष्ट्र रूपी देवता के शरीर का यदि एक अंग हृष्ट-पुष्ट हो जाये और अन्य अंग दुर्बल हो जाएँ तो दुर्बल अंगों की दुर्बलता का प्रभाव हृष्ट-पुष्ट अंग पर भी पड़ेगा।

भाषा-विवाद :- भाषा सम्बन्धी विवादों ने राष्ट्रीयता को बहुत आघात पहुँचाया है। इससे भाषावार प्रान्तों की मांग उठती है। कुछ ही वर्ष पहले दक्षिण भारत में हिन्दी के विरोध में ऐसे भयानक उपद्रव हुए । जिनसे उत्तर भारत के लोगों की भावनाओं को बहुत ठेस पहुँची।

संकीर्ण-मनोवृति :- जाति, धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर जब लोगों की विचारधारा संकीर्ण हो जाती है तब राष्ट्रीयता की भावना मन्द पड़ जाती है। लोगों के मायने एक महान् राष्ट्र का हित न रहकर एक सीमित वर्ग का संकुचित हित-चिन्तन मात्र ही रह जाता है।

वर्तमान स्थिति

उपर्युक्त कारणों से हमारे देश में राष्ट्रीयता की भावात्मक एकता का बहुत ह्रास हुआ है। स्वतन्त्रता की प्राप्ति के पश्चात तो कुछ ऐसी हवा चली कि राष्ट्र की एकता को काफी धक्का लगा। उसी का परिणाम है कि आज ‘हिन्दुस्थान हमारा हैं के स्थान पर ‘पंजाब हमारा है’, ‘मद्राग हमारा है’ के नारे लगने लगे हैं। धर्म, भाषा, जाति तथा वर्ग विशेष के नाम पर देश टुकड़ों में बैटने लगा है। ये टुकड़े आपस मे ऐसे टकराने लगे है कि एक-दूसरे को चूर-चूर करने को तैयार हो रहे हैं। राष्ट्र पतन के कगार तक पहुँक गया लगता है। लोग गांधी, नेहरू और पटेल जैसे नेताओं द्वारा दिखाये गये आदर्शों को भूल कर स्वार्थ में अंधे हो रहे है ।

उपसंहार

हम राष्ट्रीयता को समझे यह आवश्यक है हमें केवल अपना नहीं राष्ट्र का हित सोचना होगा। राष्ट्र के हित में ही हमारा हित है, राष्ट्र की सुरक्षा में ही हमारी सुरक्षा है और राष्ट्र के उत्थान एवं विकास में ही हमारा उत्थान और विकास है। राष्ट्र का विकास चाहने वाले सभी नागरिकों का कर्तव्य है कि वे संकीर्ण भावनाओं में उपर उठकर, केवल अपने परिवार या जाति की संकीर्ण भावना को छोड़कर आपसी फूट , कलह और झगड़ो में अपनी शक्ति का अपव्यय न कर राष्ट्र कल्याण के चिन्तन में लगे और अपने पास-पड़ोस के लोगों में राष्ट्रीयता की भावना को जगाने का प्रयास करें।

देशप्रेम पर हिंदी निबंध

प्रस्तावना

देशप्रेम की भावना मनुष्य में स्वाभाविक और सर्वोपरि है, जिसके अन्न-जल का सेवन करके वह बड़ा होता है, जिसकी धूलि में खेल कर वह पुष्ट होता है, जिसके जल-वायु का सेवन करके वह जीवन धारण करता है, जिसकी मिट्टी में अन्त समय में मिल जाता है, जो जन्मदात्री माता से अधिक सहनशील, स्नेहमयी और गरिमाणालिनी है – उस मातृभूमि का नाम सुनकर कौन पाषाण हृदय होगा कि जो श्रद्धा से न झुक जाये ? मनुष्यों का तो क्या कहना, पशु और पक्षियो में भी देशप्रेम देखा जाता है। जिस मनुष्य के हृदय में देशप्रेम नहीं, वह मनुष्य नहीं, शव है। उसका हृदय, हृदय नहीं पत्थर है।

देशप्रेम एक व्यापक भावना

देशप्रेम की भावना सर्वत्र और सब कालो में विद्यमान रहती है। विश्व के सभी देशों में सदा ही देशभक्त होते रहते हैं। यही वह भावना है जो मनुष्य में त्याग, बलिदान तथा सहयोग की भावना को जाग्रत करती है। मातृभूमि को मनुष्य अपनी जन्म देने वाली माता से भी कहीं अधिक महिमामयी तथा वन्दनीय समझता है। वह उसे कभी भी संकट में नहीं देख सकता है। उसकी रक्षा के लिए मनुष्य हँसते-हँसते अपना तन-मन-धन सर्वस्व न्यौछावर कर देता है और स्वयं बलिदान हो जाता है।

यह एक ऐसी भावना है कि जो सब कालों में और सब देशों में मानवमात्र के हृदय में विद्यमान रहती है। जिस देश के नागरिकों में देशभक्ति की भावना का अन्त हो जाये, उस देश का दिवाला निकल जाता है और वह पतन के गहरे गड्‌ढे में गिर जाता है। जिस मनुष्य के हृदय में देशप्रेम की सरिता नीरस हो जाये, वह मनुष्य नहीं पशु है, उसका हृदय पत्थर है।

भारत में देशप्रेम

जापान, जर्मनी तथा भारत देशप्रेम के लिए प्रसिद्ध हैं। भारत तो देशप्रेम में अपनी उपमा ही नहीं रखता। यहाँ शिवाजी और प्रताप जैसे देशभक्त हुए, जिन्होंने अपनी मातृ‌भूमि तथा स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति दे दी। यहाँ झाँसी की रानी जैसी देशभक्त महिलाओं ने जन्म लिया जिन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए ज्योति जगायी थी।

आधुनिक काल में भी यहाँ महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, पं० जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सरदार भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राजकुमारी अमृतकौर तथा विजयलक्ष्मी पंडित आदि अनेक देशभक्तों का जन्म हुआ, जिन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह के बल पर हजारो वर्ष की खोई हुई स्वतन्त्रता को पुनः प्राप्त किया और अँग्रेजों की महती शक्ति को भारत से बाहर निकाल खड़ा किया। अपने देश के इन देशभक्तों के बलिदान, त्याग तथा तपस्या के बल पर ही आज हम स्वतन्त्र वायुमण्डल में साँस ले रहे हैं।

सार्वजनिक भावना एवं सार्वभौम

आमतौर पर सभी मनुष्य देशभक्त होते ही हैं, सभी लोगो के हृदय में मातृभूमि के प्रति प्रेम होता है परन्तु मनुष्य अपने सांसारिक कार्यों में इतना व्यस्त रहता है कि उसकी यह भावना दब सी जाती है। समय पाकर जब कोई योग्य नेता या देशभक्त उन्हें मिल जाता है तो देशप्रेम की यह भावना जाग्रत हो जाती है। उनकी रग-रग में देशप्रेम की लहर दौड़ जाती है। इसीलिए जब कभी देश पर आपत्ति हो और स्वतन्त्रता खतरे में हो, उस समय ऐसे देशभक्तों की आवश्यकता होती है जो जनसाधारण के हृदय में देशप्रेम की भावना को जाग्रत कर सकें तथा उनका पथ-प्रदर्शन कर सकें। हमारे देश में समय-समय पर ऐसे देशभक्त नेता होते रहे हैं।

कठिन-मार्ग

देशप्रेम की भावना बहुत उच्च है, परन्तु इसका मार्ग कठिन है। देशभक्त की सेज काँटो की सेज होती है। दुनिया का सुख और आराम उसके लिए त्याज्य वस्तु है। मातृभूमि को सुखी और स्वतन्त्र देखकर ही उन्हें सुख होता है। मातृ‌भूमि की रक्षा में जीवन का बलिदान देकर ही उन्हें आनन्द का अनुभव होता है। मातृभूमि की रक्षा में अनेक संकट झेलते हुए आगे बढ़ते चलना ही उनका काम है। राष्ट्र की बलिवेदी पर आत्म-बलिदान कर देना ही उनका सबसे बड़ा कर्तव्य होता है।

उपसंहार

देशप्रेम वह पवित्र भावना है कि जिससे मनुष्य मरकर भी अमर हो जाता है। उसकी समाधि पर मेले लगते हैं। फूल चढ़ाये जाते है और जनता उसके आदर्श जीवन से प्रेरणा प्राप्त करती है। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, महात्मा गांधी, लक्ष्मीबाई, जार्ज वाशिंगटन तथा लेनिन आदि देशभक्तों का नाम भला क्या कभी मर सकता है? उनको तो चरणों की धूल के लिए भी लोग भटकते हैं।

भारतीय संस्कृति पर हिंदी निबंध

प्रस्तावना

संस्कृति क्या है? इस विषय में न कोई सीमा निश्चित है, न इसकी कोई व्यवस्थित परिभाषा है। वास्तव में संस्कृति उन सब गुणों का समूह है जिन्हें मनुष्य शिक्षा तथा प्रयत्नों द्वारा प्राप्त करता है जिनके आधार पर मनुष्य का व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन विकसित होता है। संस्कृति का सम्बन्ध मनुष्य की बुद्धि तथा हृदय, दोनों से है। संस्कृति का विकास जातीय चेतना में होता है। इसी चेतना में जीवन में वे सब चीजें आती हैं जिनका सम्बन्ध काव्य, धर्म और दर्शन से होता है। संस्कृति का विकास मुख्य रूप से कला एवं चिन्तन की प्रतीकमूलक कृतियों में होता है। किन्तु आंशिक रूप में विवाह, शासन, शिक्षा आदि सामाजिक संस्थाएँ भी उसके विकास में सहायक होती हैं।

भारतीय-संस्कृति का मूल

जब हम भारतीय संस्कृति की चर्चा करते है तो हमारा तात्पर्य उस संस्कृति से होता है जिसका जन्म भारत में हुआ तथा जो युगों से भारत के विभिन्न भागों में विकसित होती चली आ रही है। इस देश में धर्म और संस्कृति का गहरा सम्बन्ध रहा है इसलिए धर्म के शिक्षकों एवं आचार्यों ने भारतीय-संस्कृति और उसके विभिन्न रूपी को विशेष रूप से प्रभावित किया है।

अनेक सम्प्रदाय जैसे बौद्ध, जैन यहाँ चले परन्तु इन सब सम्प्रदायों ने हिन्दू संस्कृति की विशाल धारा में कोई कटाव न करके उसे और अधिक पुष्ट तथा प्रवहणशील ही बनाया है। शक, हूण, यवन, मुसलमान तथा ईसाई आदि अनेक विदेशी जातियाँ यहाँ आयीं। इनमें से कुछ ने तो यहाँ काफी समय तक शासन भी किया। बहुत-सी जातियाँ इस देश में बस गयीं और यहीं की होकर रहने लगीं किन्तु हिन्दू संस्कृति की यह धारा निरन्तर अबाध गति से आगे बढ़ती रही है।

वास्तव में ये स्रोत इतने गहरे हैं, जिन्हें कोई दूसरी संस्कृति बाधित नहीं कर सकी। बाहर से आयी संस्कृति या तो इसमें मिल कर इसी के रंग में मिल गयीं या वे इस संस्कृति से कुछ लेन-देन करके अपनी पृथक सत्ता के रूप में इस देश की धरती पर बहने लगीं। वास्तव में हिन्दू संस्कृति ही इस देश की व्यापक एवं प्रधान संस्कृति है जिसका मूल भारतीय मनीषियों तथा धर्म प्रवर्तकों की कृतियों तथा चिन्तनधारा में निहित है।

भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ

मानव जीवन के विभिन्न अंगों का व्यापक रूप भारतीय संस्कृति में मिलता है। संसार के किसी अन्य धर्म या जाति में जीवन की ऐसी विविधता या व्यापकता दिखाई नहीं पड़ती है। बौद्ध और जैन आदि अनेक सम्प्रदाय यहाँ पैदा हुए किन्तु उनके मूल्यवान विचारों और शिक्षाओं को आत्मसात् कर इस संस्कृक्ति ने उदारता का परिचय दिया। विविधता और समन्वय की भावना को प्रधानता इस संस्कृक्ति में प्रारम्भ से रही है। हिन्दू संस्कृति का जैसा सर्वांगीण विकास हुआ वैसा अन्य सस्कृक्तियों का नहीं हो सका। यह संस्कृति उत्तर-भारत में विकसित होकर धीरे-धीरे सारे देश में फैली। भिन्न-भिन्न स्वभाव के लोगों में इसका विस्तार हुआ। भारतीय संस्कृति का रूप अत्यन्त विचित्रतापूर्ण, विविधात्मक तथा जटिल है।

धर्म की प्रधानता

भारतीय संस्कृति का मूल आधार धर्म है। धर्म भारतीय जीवन दर्शन का प्राण है। इसलिए इस संस्कृति में आध्यात्मिक भावों की अधिकता है। हमारे यहाँ मन और शरीर, दोनों की शुद्धि कर विशेष बल दिया गया है। मनुष्य का बाहर और भीतर जब तक दोनों शुद्ध नहीं होते, तब तक वह गलत को सही मानता है। भारतीय संस्कृति की एक और विशेषता अपने पूर्वजों की परम्परा को आगे बढ़ाना है। इस संस्कृति के अनुसार मनुष्य को देव-ऋण, ऋषि-ऋण तथा पितृ ऋण को चुकाये बिना साधना का अधिकारी नहीं समझा जाता है।

समानता की भावना

भारतीय संस्कृति की एक महती विशेषता है- समानता की भावना । ‘ आत्मवत् सर्वभूतेषु ‘ अर्थात संसार के प्राणीमात्र में अपनेपन का अनुभव करना इस संस्कृति का मुख्य सिदान्त है। ‘ उदारचरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम् ‘ के सिद्धान्त के आधार पर यह संस्कृति सारे विश्व को एकता के सूत्र में बांधती है और ‘ईशावास्यमिद सर्वम्’ के सिद्धान्त के आधार पर सम्पूर्ण उदारता की भावना जगाने का प्रयत्न करती है।

समन्वय की भावना

भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता उसकी समन्वय भावना है। इस संस्कृक्ति की इस विशेषता ने ही इसे अजर-अमर बना दिया है। शक, हुण आदि अनेक संस्कृतियाँ इस देश में आयी परन्तु वे सब इसमें समा गयी। सबको मिलाकर अनेकता में एकता उत्पन्न कर परस्पर के द्वंदो को दूर करने की यह भावना किसी दूसरी संस्कृति में नहीं मिलती है।

भारतीय संस्कृति की इस विशेषता के कारण ही हजारों वर्ष तक विदेशी संस्कृक्तियों के शासन में रहकर भी इस संस्कृति की धारा कभी मन्द या उथली नहीं हो पायी है। संसार में अनेक संस्कृतियाँ विकसित हुई और मिट गयी, उनका नाम-निशान भी आज बाकी नहीं। यूनान, मिस और रोम की सम्पति जो कभी बहुत उन्नत थी , आज दिखाई नहीं पड़ती किन्तु भारतीय संरकृक्ति आज भी अपनी पीयूष-धारा में अनेक नरनारियों को सिक्त करती हुई उसी प्रकार प्रवाहणील है ।

उपसंहार

इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि भारतीय संस्कृत विश्व की प्राचीनतम तथा सर्वोन्नत संस्कृति है। इस संस्कृक्ति ने सदैव संसार को कर्तव्य, संयम, त्याग और प्रेम का मार्ग दिखाया है। भारतीय संस्कृति व्यक्ति में उदारता की भावना जगाकर उसके व्यक्तित्व को निखारती है महान् कार्यों की ओर अग्रमर करती है और साथ ही समष्टिगत भावनाओं को जन्म देती है। जिओ और जीने दो’ इस संस्कृति का मुख्य संदेश है।

राष्ट्रीय एकता, देशप्रेम और भारतीय संस्कृति पर हिंदी निबंध
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